कबीर दोहावली भजन | Kabir Dohavali

कबीर दोहावली

सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ 
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ 
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ 


कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ 
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ 
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ 


कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ 
कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ 


कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास । पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥ 
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक । और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥ 

कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह । जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥ 
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ । मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥ 

 कबीर दोहावली अर्थ सहित : Kabir Dohavali


करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड । जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥ 
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ । बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥ 
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग । राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥ 
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद । सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥ 
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल । पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥ 


काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ । दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥ 
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच । तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥ 
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥ 
खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून । देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥ 
साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ । जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥ 


तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय । कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥ 
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास । सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥ 
जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम । राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥ 
कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ । हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥ 
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि । दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥ 


मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम । वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥ 
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ । साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ 
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥ 
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान । धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥ 


जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग । पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥ 
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु । ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥ 
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै । नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥ 
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम । राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ 
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ 
कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ 
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥ 


मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ 
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ 

काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ 
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ 


आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥ 
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ । विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥ 
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥ 


मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि । जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥ 
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ । पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥ 


एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ । राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥ 
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ । ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥ 
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि । एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥ 


कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ । इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ 
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत । आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥ 

कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस । ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥ 
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ । गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥ 
उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं । एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥ 
कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट । घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥ 

कबीर दोहावली अर्थ सहित (das ji ke dohe )


मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि । कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥ 
कबीर माला मन की, और संसारी भेष । माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥ 
माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ । मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥ 
कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार । मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥ 
माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ । माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥ 
बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक । छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥ 


स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥ 
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात । एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥ 
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार । अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥ 
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर । रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥ 


सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत । लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥ 
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह । कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥ 
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह । विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥ 
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ । जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥ 
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि । कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥ 
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई । तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥ 


पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ । चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥ 
फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई । जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥ 

kabir das ji ke dohe hindi mein


हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि । तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥ 
जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं । ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥ 
कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास । जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥ 
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान । वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥ 
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम । मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥ 


दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि । सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥ 
कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि । यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥ 
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ । अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥ 
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग । भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥ 

रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ । दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥ 
कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ । हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥ 
मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई । कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥ 
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह । ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥ 
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ । साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥ 


कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत । काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥ 
कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ । पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥ 
जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द । कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ 

कबीर दोहावली (nindak niyare rakhiye kabir dohe meaning )

अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर । सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥ 
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार । ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥ 402 ॥ 
कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ । जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥ 
सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि । जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥ 
जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ । धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥ 

kabir das ji ke dohe in hindi


आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ । अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥ 
जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ । मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥ 
कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर । तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥ 


रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान । ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥ 


कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास । कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥ 
अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ । अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥ 
जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई । दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥ 

kabir vani hindi


साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार । बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥ 
झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार । आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥ 
एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ । औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥ 
कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार । तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥ 
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥ 


कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि । बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥ 
बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत । तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥ 
पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि । जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥ 

निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय । बिन पाणी बिन सबुना, निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥ 
गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि । डरता पाणी जा पीऊं, मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥ 


जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ । जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥ 
सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ । पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥ 
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ । कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥ 
नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि । जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि ॥

426 ॥ कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित न कोइ । 

गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥ 
हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ । ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥ 
सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं । आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥ 
क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि । तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥ 
सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार । पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥ 
॥ गुरु के विषय में दोहे ॥ 

dohe kabir ke


गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान । बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥ 
गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम । कीट न जाने भृगं को, गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥ 
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय । जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ॥ 434 ॥ 


गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त । वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥ 
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय । कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥ 

kabir ke dohe in hindi

जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर । एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ 
गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान । तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥ 
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट । अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥ 
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं । कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥ 
लच्छ कोष जो गुरु बसै, दी

जै सुरति पठाय । शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥ 
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर । आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥ 
गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त । प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥ 
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष । गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥ 
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं । उन्हीं कूँ परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥ 

kabir ji ke dohe in hindi


गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और । सुख सम्पति की कह चली, नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥ 
सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान । शब्द सहै सम्मुख रहै, निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥ 
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास । गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥ 
अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान । ताको जम न्योता दिया, होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥

 
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय । कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥ 
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव । मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥ 
पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान । ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥ 
सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम । कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥ 

kabir das ke dohe hindi mai


कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव । तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥ 
कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार । तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥ 
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत । ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥ 


तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान । कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥ 
जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि । शीष भाव सुत्त जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥ 
भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि । गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥ 

sant kabir dohe in hindi


करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय । बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥ 
सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय । जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥ 
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल । अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥ 


लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय । कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥ 
राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट । कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥ 
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय । जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥ 
॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥ 

सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय । धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥ 
सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज । जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥ 
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड । तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥ 


सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय । भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥ 469 ॥ 
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय । माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥ 
जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव । कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥ 

aisi vani boliye doha


मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर । अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥ 
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय । कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥ 473 ॥ 
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान । तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥ 
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय । ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥ 


बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे । ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥ 
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय । बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥ 
डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय । लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥ 
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु । मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥ 


करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है । होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥ 
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत । करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥ 
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे । गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥ 


जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन । अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥ 483 ॥ 
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध । अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥ 
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव । दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥ 


आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय । दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥ 
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥ 
पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख । स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥ 
कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल । मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥ 
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव । सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥ 
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय । सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥ 
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार । द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥ 492 ॥ 
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं । दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥ 

कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार । पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥ 
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय । शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥ 
सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय । चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥ 
गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश । मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥ 
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय । बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥ 
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह । कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥ 499 ॥ 
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास । अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥ 

kabir ke dohe kabir ke dohe

जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ 
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ 
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ 
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय । कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ 


गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग । कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ 
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर । नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥ 
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥ 
॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ 

शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥ 
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥ 
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥ 
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय । कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ 


स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय । चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥ 
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥ 
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय । जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥ 
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥ 
॥ भक्ति के विषय में दोहे ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय । गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ 
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥ 
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं । तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥ 
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह । सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ 
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह । माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ 
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार । सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥ 
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय । बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ 
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज । ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥ 
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार । कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥ 
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग । ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ 
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार । बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥ 
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय । बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥ 
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय । जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥ 

doha kabir das


साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय । दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ 
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय । एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥ 
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ । कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥ 
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान । ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥ 


टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि । टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥ 
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है । कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥ 
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार । देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥ 

हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो । भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥ 
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय । एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥ 
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास । वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ 
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल । साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ 
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय । जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥ 
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय । अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ 


कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि । ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥ 
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय । कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥ 
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय । कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥ 
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय । यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ 
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार । कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥ 
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय । कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥ 

kabir ke 10 dohe


पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय । यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ 
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष । कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ 
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय । कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥ 
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त । यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥ 
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि । साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥ 


साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान । कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥ 
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय । कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥ 
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय । कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥ 

sant kabir vani in hindi


सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि । कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥ 
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय । यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ 
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर । साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥ 
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि । कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥ 
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह । माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥ 


साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय । मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥ 
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन । धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ 
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर । सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ 

kabir das ke 5 dohe


साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट । शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ 
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार । जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥ 
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग । तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ 
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय । कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥ 
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय । जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ 


सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह । परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥ 
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर । परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ 
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध । कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥ 
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव । चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ 
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल । कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥ 

kabir rahim ke dohe


हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि । तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥ 
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान । वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥ 
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप । जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥ 


साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड । सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥ 
कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय । कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥ 
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद । षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥ 
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय । जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ 

kabirdas doha


वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस । गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥ 
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान । शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥ 
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं । पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥ 
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार । डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥ 


साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ 
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल । बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥ 
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल । परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ 
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास । टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥ 

kabir das ke dohe in hindi with meaning


साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि । अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ 
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट । माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591 
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ 
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ । सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥

 
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय । न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥ 
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर । शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ 
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार । आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥ 


दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप । उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥ 
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय । छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥ 
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक । बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ 
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात । निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ 

kabir dohe on guru

निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ 
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ 
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ 
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ 


इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ 
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ 

kabir das ke dohe hindi mein


कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ 
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ 
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ 
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ 
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ 


एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ 
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ 
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ 
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ 


तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ 
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ 
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ 

kabir ji ki vani


जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ 
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ 
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ 
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ 


संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ 
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ 
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ 


सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ 
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ 
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ 

यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ 
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ 
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ 

kabir das ji ki vani


साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ 
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ 
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ 
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ 


सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ 
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ 
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ 
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ 
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥ 

kabir vani doha


चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ 
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ 
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ 
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ 
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ 
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ 


गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ 
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ 
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ 
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ 
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ 

कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ 
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ 
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ 
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ 


धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ 
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ 
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ 

aisi vani boliye doha meaning in hindi

उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ 
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ 
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ 
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ 
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ 
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ 
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ 
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ 
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ 
॥ संगति पर दोहे ॥ 

kabir das dohe in hindi with meaning

कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ 
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ 
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ 
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ 


साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ 
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ 
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ 
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ 

संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ 
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ 
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ 
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ 
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ 


मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ 
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ 

kabir das dohe in hindi with meaning


ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ 
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ 
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ 
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ 
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ 


कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ 
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ 
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ 
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥

 
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥

 
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ 
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ 
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ 
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ 


संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ 
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ 
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ 

hindi poet kabir das dohe

सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ 
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ 

कबीर के दोहे

सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ 
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ 
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ 
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ 
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ 
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ 
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ 


कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ 
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ 
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ 
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ 
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ 
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ 
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ 

दासता पर दोहे

कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ 
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ 
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ 
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ 
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ 


काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ 
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ 
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ 
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ 
॥ भक्ति पर दोहे ॥ 

भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ 
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ 
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ 
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ 
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ 
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ 
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ 
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ 
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥ 
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ 
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ 
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ 
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ 
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ 


आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ 
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ 
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ 


निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ 
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥ 
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ 
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ 

भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ 
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ 
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ 
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ 
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥

 
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ 
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ 
॥ चेतावनी ॥ 

कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ 


कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ 
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ 
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ 
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ 


कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ 
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ 


कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ 
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ 
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ 

कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ 
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥ 
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ 
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ 
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ 
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ 


एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ 
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥ 
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ 
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय । ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ 


कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ 
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥ 
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ 
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास । ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ 
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ 
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ 


आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ 
आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल । आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥ 
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ 
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ 


ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ 
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ 
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥ 
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥ 
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ 
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ 
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ 
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ 

पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥ 
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥ 
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ 
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ 
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ 

कबीर दोहावली  

कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय । राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥ 
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥ 
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय । ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान । टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ 
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय । ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥ 
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ 
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय । तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥ 
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास । मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ 


ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर । ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥ 
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ । करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥ 
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र । जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥ 
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय । मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥ 
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥ 
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥ 
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय । प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥ 
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि । चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥ 
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥ 
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार । डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥ 


भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय । भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥ 
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥ 
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात । सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥ 
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥ 
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥ 

बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥ 
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद । बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ 
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात । मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ 
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥ 
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ 


मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल । जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥ 
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥ 
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥ 
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज । छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥ 
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ 
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥ 
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥ 
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥ 
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर । अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ 
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय । मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ 
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥ 
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान । गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥ 
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ 
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार । सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ 
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ 
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ । पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥ 
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान । सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥ 
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥