संत कबीर के दोहे ने सभी धर्मों, पंथों, वर्गों में प्रचलित कुरीतियों पर उन्होंने प्रहार किया है। कबीर दास ने धर्म के वास्तविक रुप को भी उजागर किया हैं। महान संत कबीर दास जी अनपढ़ थे। हिन्दी साहित्य में उनके योगदान को आज भी लोग याद करते हैं। कबीर के दोहे और उनकी रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं।
कबीर ने अपने जीवन के अनुभव से दुनिया को वो शिक्षा दी जिससे आदमी अगर मान ले तो इंसान का जीवन बदल सकता है। कबीर के दोहे को पढ़कर इंसान में सकारात्मकता आती है । प्रश्तुत है कबीर दास के दोहे – Kabir Das ke Dohe ,kabir ke dohe
Kabir ke dohe
दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥
दुख में सभी भगवान को याद करते हैं सुख में अक्सर इंसान भगवान को भूल जाता है. जो सुख में भगवान को याद करता है उसको दुख कभी नहीं मिलता
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये
अर्थ – जब हम पैदा होते है तो हम रोते है और दुनिआ ख़ुशी से हंसती है. जीवन में हमें ऐसा काम करना चाहिए जिअसे की मरने पे दुनिया हमारी याद में रोये और हम ख़ुशी से हँसे
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ – किताबें पढ़ कर लोग शिक्षा तो हासिल कर लेते हैं लेकिन कोई ज्ञानी नहीं हो पाता। जो व्यक्ति प्रेम पढ़ ले और वही सबसे बड़ा ज्ञानी है।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ – किसी विद्वान् व्यक्ति से उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए. बल्कि ज्ञान की बात करनी चाहिए। असली मोल तो तलवार का होता है म्यान का नहीं।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
अर्थ – जो लोग मेहनत करते हैं वह कुछ ना कुछ पाने में जरूर सफल हो जाते हैं| जैसे कोई गोताखोर जब गहरे पानी में डुबकी लगाता है तो कुछ ना कुछ लेकर जरूर आता है लेकिन जो लोग डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रहे हैं उनको जीवन में कुछ नहीं मिलता
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत
अर्थ – इंसान दूसरों के अंदर की बुराइयों को देखकर उनके दोषों पर हँसता है, व्यंग करता है लेकिन हजारो दोष उसको याद नहीं आते है
“ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।”
मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर। अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।”
परोपकार, दान सेवा करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती है, परन्तु उसका जल घटता नहीं। परोपकार करके स्वयं देख लो।
kabir das ke dohe
“कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय। साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।”
बेकार बात करने वाले या फिर बिना सर पैर के बात करने वालो जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। दुष्टों तथा कुत्तों को उत्तर न दो।

ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि.
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं
अर्थ – जैसे आँख के अंदर पुतली है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा है। मूर्ख लोग नहीं जानते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।
ज्ञान भक्ति वैराग्य सुख पीव ब्रह्म लौ ध़ाये
आतम अनुभव सेज सुख, तहन ना दूजा जाये।
ज्ञान,भक्ति,वैराग्य का सुख तेज गति से भगवान तक पहुॅंचाता है।पर खुद से मिला हुआ अनुभव आत्मा और परमात्मा का मेल कराता है। जहाॅं अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता है।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि
अर्थ – जो व्यक्ति अच्छी वाणी बोलता है वही जानता है कि वाणी अनमोल है| इसके लिए हृदय में शब्दों को तोलकर ही मुख से बाहर आने दें|
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना
अर्थ – हिन्दूयों के लिए राम प्यारा है और मुस्लिमों के लिए अल्लाह प्यारा है| दोनों राम रहीम के चक्कर में आपस में लड़ मिटते हैं लेकिन कोई सत्य को नहीं जान पाया|
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत |
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ||
kabir das dohe
जिसे अनुभव का ज्ञान है उसके लक्षणों के बारे में के बारे में ज्यादा नहीं सोचना चाहिए. वह साधु असाधु में भेद नहीं देखता है।उसका वर्णन क्या किया जाय।
बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि
जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।
परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है।जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं वे सभी अत्यंत भ्रम में है।
ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक
इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।
ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता।
लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥
एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥
कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥
kabir dohe
सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥
kabir das ji ke dohe
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
kabir ke dohe in hindi
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥

दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥
दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
kabir ji ke dohe
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥
sant kabir ke dohe
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
kabir ke dohe with meaning in hindi language
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥
kabir dohe in hindi
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥
kabir ke dohe pdf
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥
ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥
सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥
संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥
जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥
काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥
बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥
तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥
कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥
कबीर दास दोहे
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥
sant kabir das ke dohe
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 116 ॥
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥
short poems of kabir das in hindi
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 125 ॥
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥
kabir ke dohe hindi
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥
kabir ke pad
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥
kabir ke dohe with meaning
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥
kabir das vani
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥
Kabeer das ke dohe
कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥
kabir das ji ki bani
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥
kabir das ke best dohe
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥
कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥
kabir das doha
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥
das ke dohe
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥
kabir dohe hindi
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥
kabir ke dohe hindi mein
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥
ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥
तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार । याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥
sant kabir das ki vani
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥
dohe kabir das ke
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥
मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥
kabir dohe on love
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥
साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥
संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥
लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥
हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥
ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥
क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥
बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव । दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग । बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥
kabir famous dohe
कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष । स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥
यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं । लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि । जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त । और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ । मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे । दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥
परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ । सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥
पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ । लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥
हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान । काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥
जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ । धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥
पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई । आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥
kabir das ke dohe kabir das ke dohe
दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ । हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥
भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ । मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥
कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ । एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ । नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं । गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥
कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत । जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥
जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव । कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥
पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत । सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥
कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि । कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥
भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि । हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥
परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि । खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥
ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना । ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥
कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद । नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ । राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥
स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास । राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥
इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम । स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥
kabir das ke bani
ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं । उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ । लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥
कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई । दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥
कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ । रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम । कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥
काल के विषय मे दोहे
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय । सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय । जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय । कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त । दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और । बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर । बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात । न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल । मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥
चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार ।सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त । ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल । आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥
ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार । दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥
खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय । घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान । छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि ।काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥
ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय । जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार ।कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय ।काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय । जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ । जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥
॥ उपदेश ॥
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान ।
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान ।
लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 894 ॥
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह ।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह ।
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 896 ॥
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह ।
बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय ।
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥
Kabir Dohavali
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार । श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥ 901 ॥
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत । गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥ 902 ॥
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥ 903 ॥
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान । निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 904 ॥
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 905 ॥
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 906 ॥
कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ |ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ||907||
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय |राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ||908||
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर |कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ||909||
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर |आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ||910||
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद |खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ||911||
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर |परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ||912||
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय |तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ||913||
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार |दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ||914||
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं |ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं ||915||
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ |कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ||916||
तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय |कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ||917||