कवितायें दोस्त होती हैं
कुछ साधारण कुछ गहरी
कोई दिनों के लिए साथ
कोई दुनिया के लिए
उम्र भर साथ चलने के लिए
सिर्फ दो-चार…
कवितायें प्रेमिकाएं होती हैं
आठवीं की कला- दसवीं की आशा
बारहवीं की शैली – चौदहवीं की शहनाज़
समय की गर्द में दबे राज़
खोलती हैं बंद लिफाफे सा मन
फुर्सत के क्षण
दो पंक्तियों के बीच फासले जितने
बहुत कम समय तक
भूली बिसरी कहावत सी
याद आती हैं कुछ
चलती रहती हैं साथ
उपमा में उलझी
प्रतीकों में बंधी
अलंकारों से बोझल कुछ
कवितायें प्रेमिकाएं होती हैं…
कठिन हो जाती हैं अंत तक निभानी
कभी, ठीक होने की कोशिश में
सही को भूलती हुईं
बीच में झूलती हुईं
अपने ही ताने बाने से परेशान
कुछ ही हौसला बनती हैं
मरते दम तक साथ चलती हैं
कवितायें रिश्ते होती हैं…
अपना अपना रिवाज होती हैं
अच्छाई और बुराई को लिए
दूसरे की ज़िन्दगी में दखल देती हुईं
कवितायें समाज होती हैं…
दोस्तों – प्रेमिकाओं – रिश्तों
और समाजों से परे
कोई कविता नहीं होती….
अलिखित
जो कुछ मैंने
या मेरे जैसे बहुतों ने लिखा
दुनिया ऐसे ही चलती
अगर न भी लिखते…
सलीब पर टांग सकते हो
आप उन किताबों -पत्र- पत्रिकाओं को
जो पेड़ों के काटने के लिए ज़िम्मेदार हैं
लेकिन
पढ़े जाने के लिए नहीं
मैं जानता हूं
वो बहुत पढ़ा जाना था
जो जा रहा है मेरे साथ
अलिखित
दरअसल
जो लिखा-जो कहा
ज़रूरी नहीं था
जो ज़रूरी था
न लिखा-न कहा.
ख़ामोशी
शोर और भीड़ में
जो गुम हो गया
अंदर
उसे ढूंढने की कोशिश ही तो है
ख़ामोशी
वो खुश
स्वस्थ, स्वप्नशील
जिसके विश्वास
शरीर से परे थे
शरीर ले डूबेगा
कतई विश्वास नहीं था जिसे
उसे लौट आने की गुहार
अपना अपने साथ
अपना अपनों के साथ
चोखा लेखा जोखा
खर्च-बचत-ख़राब
का जमा घटाव
निशब्द घाव
जिसके दर्द में
भाषाएं जन्म ले रही हैं
दम तोड़ रही हैं
बहुत कुछ कहने को
बहुत कुछ था
समय के अलावा
समय रहते जो
मुझसे सीखना चाहते हैं
अकेले लड़ने का हुनर
या
लिखने की कला
उन्हें बताना है
लिखना-विखना
लड़ना-वड़ना कुछ नहीं
खोज है ख़ामोशी की
जो मेरी मिट्टी में है मेरे अंदर
जो मेरी मिट्टी में होगी एक दिन
मेरे बाहर .
–==–
मोहब्बत की बात
चलो मोहब्बत की बात करें
चलो मोहब्बत की बात करें
अब
मैले जिस्मों से ऊपर उठ कर
भूलते हुए कि कभी
ज़रूरतों के आगे घुटने टेक चुके हैं हम
देख चुके हैं
अपनी रूह को तार तार होते
झूठे फख़र के साथ
ज़िन्दगी के पैरों तले
बेरहमी से रौंदे जाने के बाद
मरहम लगाएं ज़ख़्मी वजूद पर
जो शर्मसार बैठा है
सपनों के मजार पर
मातम मनाता हुआ
इससे बुरी कोई बात नहीं कर सकते
हम अपनी ज़िद्द में
धोखा दे चुके हैं अपने आप को
खेल चुके हैं अपनी इज़्ज़त से
भोग चुके हैं झूठ को सच की तरह
अब
इन हालात में
कोई गैरज़रूरी बात ही कर सकते हैं हम
आओ मोहब्बत की बात करें
*
अब जबकि अहम बातें ख़त्म हो गईं
ख़त्म हो गया
सकून
सपना
उम्मीद
ख्वाहिश
कोशिश भी
पाकर खोने और खोकर पाने का
फासला भी ख़त्म हो गया
किसको बचाना है
किस से बचना है
ये फैसला भी ख़त्म हो गया
इस समय
जबकि मोहब्बत पे विश्वास है हमारा
मोहब्बत करने वाले पे नहीं
जब झूठी कसमों को
सच मान ने की आदत पड़ गई
तन की तपिश
ज़रुरत से ज़यादा बढ़ गई
मोहब्बत की गहराई
सीने की ऊंचाई से नापने का रिवाज है
भविष्य की चिंता से
छुट्टी चाहिये कुछ पल
यही पल है गैरज़रूरी बात का
चलो मोहब्बत कि बात करते हैं.
लफ़्ज़ों से जो था परे
खालीपन को जो भरे
कुछ तो था तेरे मेरे
दरमियाँ
रिश्ते को क्या मोड़ दूं
नाता ये अब तोड़ दूं
या फ़िर यूँ ही छोड़ दूं
दरमियाँ
बेनाम रिश्ता वो
बेचैन करता जो
हो ना सके जो बयां
दरमियाँ
कुछ तो था तेरे मेरे
दरमियाँ
दो पंक्तियों के बीच फासले जितने
बहुत कम समय तक
भूली बिसरी कहावत सी
याद आती हैं कुछ,
चलती रहती हैं साथ
उपमा में उलझी
प्रतीकों में बंधी
अलंकारों से बोझल कुछ
कवितायें प्रेमिकाएं होती हैं…
मुझमें कितने
मैं रहते हैं
तू जाने या मैं जानूँ।
तेरी नज़रों में है तेरे सपने
तेरे सपनों में है नाराज़ी
मुझे लगता है के बातें दिल की
होती लफ़्ज़ों की धोखेबाज़ी
तुम साथ हो या ना हो क्या फर्क
न दोस्ती न दुश्मनी
मेरा काम तो है रौशनी
मैं रास्ते का चराग़ हूँ
कहो सर-फिरी हवाओं से
न चलें ठुमक-अदाओं से
कभी फिर करूँगा मोहब्बतें
अभी सामने हैं ज़ुल्मतें
वो भटका सा राही
मेरे गांव का ही
वो रस्ता पुराना
जिसे याद आना
ज़रूरी था लेकिन
वो रोया मेरे बिन
वो एक मेरा घर था
पुराना सा डर था
मगर अब न मैं अपने घर का रहा
सफ़र का ही था मैं सफ़र का रहा