हरिवंश राय बच्चन कविता संग्रह | Harivansh Rai Bachchan Poems

Harivansh Rai Bachchan Poems

कोई पार नदी के गाता : हरिवंश राय बच्चन 

 कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर,इस देहाती गाने का स्वर,ककड़ी के खेतों से उठकर,आता जमुना पर लहराता!कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही,कभी सोचते होंगे यह भी,इस तट पर भी बैठा कोईउसकी तानों से सुख पाता!कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मनसुनकर यह एकाकी गायन,सदा इसे मैं सुनता रहता,सदा इसे यह गाता जाता!कोई पार नदी के गाता!

Yah Meeti ki Chaturai

यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो !

Harivansh Rai Bachchan poem in hindi

Tum apne rang me rango toh holi hai

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

खेल चुके हम फाग समय से!

फैलाकर निःसीम भुजाएँ,
अंक भरीं हमने विपदाएँ,
होली ही हम रहे मनाते प्रतिदिन अपने यौवन वय से!
खेल चुके हम फाग समय से!

मन दे दाग अमिट बतलाते,
हम थे कैसा रंग बहाते
मलते थे रोली मस्तक पर क्षार उठाकर दग्ध हृदय से!
खेल चुके हम फाग समय से!

रंग छुड़ाना, चंग बजाना,
रोली मलना, होली गाना–
आज हमें यह सब लगते हैं केवल बच्चों के अभिनय से!
खेल चुके हम फाग समय से!

Harivansh Rai Bacchan best poem : Agneepath

Apgneepath

अग्निपथ / हरिवंश राय बच्चन 

 वृक्ष हों भले खड़े,हों घने हों बड़े,एक पत्र छाँह भी,माँग मत, माँग मत, माँग मत,अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,तू न रुकेगा कभी,तू न मुड़ेगा कभी,कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है,चल रहा मनुष्य है,अश्रु श्वेत रक्त से,लथपथ लथपथ लथपथ,अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

Harivansh Rai Bachchan kavita

Kya hai meri baari

क्या है मेरी बारी में / हरिवंशराय बच्चन

 क्या है मेरी बारी में।
जिसे सींचना था मधुजल सेसींचा खारे पानी से,नहीं उपजता कुछ भी ऐसीविधि से जीवन-क्यारी में।क्या है मेरी बारी में।
आंसू-जल से सींच-सींचकरबेलि विवश हो बोता हूं,स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा हैमेरी इस लाचारी में।क्या है मेरी बारी में।
टूट पडे मधुऋतु मधुवन मेंकल ही तो क्या मेरा है,जीवन बीत गया सब मेराजीने की तैयारी में|क्या है मेरी बारी में

Lo Din Bita Lo Raat Gayi

लो दिन बीता लो रात गयी / हरिवंशराय बच्चन 

 सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,डूबा, संध्या आई, छाई,सौ संध्या सी वह संध्या थी,क्यों उठते-उठते सोचा थादिन में होगी कुछ बात नईलो दिन बीता, लो रात गई
धीमे-धीमे तारे निकले,धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,सौ रजनी सी वह रजनी थी,क्यों संध्या को यह सोचा था,निशि में होगी कुछ बात नई,लो दिन बीता, लो रात गई
चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,पूरब से फ़िर सूरज निकला,जैसे होती थी, सुबह हुई,क्यों सोते-सोते सोचा था,होगी प्रात: कुछ बात नई,लो दिन बीता, लो रात गई

Harivansh Rai Bachchan Poem : Khasn bhar ko pyaar kiya tha

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? हरिवंशराय बच्चन 

 क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,पलक संपुटों में मदिरा भरतुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’और न कुछ मैं कहने पाया -मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,आज राग जो उठता मन में -यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ : हरिवंशराय बच्चन

 सोचा करता बैठ अकेले,गत जीवन के सुख-दुख झेले,दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
नहीं खोजने जाता मरहम,होकर अपने प्रति अति निर्मम,उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आह निकल मुख से जाती है,मानव की ही तो छाती है,लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

हरिवंशराय बच्‍चन :आ रही रवि की सवारी!

नव किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी!
आ रही रवि की सवारी!

विहग बंदी और चारण,
गा रहे हैं कीर्ति गायन,
छोड़कर मैदान भागी तारकों की फौज सारी!
आ रही रवि की सवारी!

चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह,
रात का राजा खड़ा है राह में बनकर भिखारी!
आ रही रवि की सवारी

Harivansh Rai Bachchan Poem : Dekho Tut raha hai Tara

हरिवंशराय बच्‍चन | देखो, टूट रहा है तारा

नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!
देखो, टूट रहा है तारा!

हुआ न उडुगन में क्रंदन भी,
गिरे न आँसू के दो कण भी
किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा!
देखो, टूट रहा है तारा!

यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक, देखता रहता दूर खड़ा तारक-दल सारा!
देखो, टूट रहा है तारा!

Atma Parichay poem by Harivansh Rai Bachchan

आत्‍मपरिचय / हरिवंशराय बच्‍चन 

 मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!

मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!

मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!

मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;
जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!

मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,
उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!

कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ!

Harivansh Rai Bachchan Poems in hindi

मैं कल रात नहीं रोया था

 मैं कल रात नहीं रोया था
दुख सब जीवन के विस्मृत कर,तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था!मैं कल रात नहीं रोया था!
प्यार-भरे उपवन में घूमा,फल खाए, फूलों को चूमा,कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था!मैं कल रात नहीं रोया था!
आँसू के दाने बरसाकरकिन आँखो ने तेरे उर परऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था?मैं कल रात नहीं रोया था!

त्राहि त्राहि कर उठता जीवन : हरिवंशराय बच्चन 

 त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब रजनी के सूने क्षण में,तन-मन के एकाकीपन मेंकवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब उर की पीडा से रोकर,फिर कुछ सोच समझ चुप होकरविरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ हटाता,त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
पंथी चलते-चलते थक कर,बैठ किसी पथ के पत्थर परजब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पांव दबाता,त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

इतने मत उन्‍मत्‍त बनो / हरिवंशराय बच्चन 

 इतने मत उन्‍मत्‍त बनो!
जीवन मधुशाला से मधु पी
बनकर तन-मन-मतवाला,
गीत सुनाने लगा झुमकर
चुम-चुमकर मैं प्‍याला-
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उन्‍मत्‍त बनो।

इतने मत संतप्‍त बनो।
जीवन मरघट पर अपने सब
आमानों की कर होली,
चला राह में रोदन करता
चिता-राख से भर झोली-
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत संतप्‍त बनो।

इतने मत उत्‍तप्‍त बनो।
मेरे प्रति अन्‍याय हुआ है
ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण,
करने लगा अग्नि-आनन हो
गुरू-गर्जन, गुरूतर गर्जन-
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उत्‍तप्‍त बनो।

स्वप्न था मेरा भयंकर

स्वप्न था मेरा भयंकर!
रात का-सा था अंधेरा,बादलों का था न डेरा,किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!स्वप्न था मेरा भयंकर!
क्षीण सरिता बह रही थी,कूल से यह कह रही थी-शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!स्वप्न था मेरा भयंकर!
धार से कुछ फासले परसिर कफ़न की ओढ चादरएक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!स्वप्न था मेरा भयंकर!

Harivansh Rai Bachchan Poems | तुम तूफान समझ पाओगे

 गीले बादल, पीले रजकण,सूखे पत्ते, रूखे तृण घनलेकर चलता करता ‘हरहर’–इसका गान समझ पाओगे?तुम तूफान समझ पाओगे?
गंध-भरा यह मंद पवन था,लहराता इससे मधुवन था,सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?तुम तूफान समझ पाओगे?
तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ,नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,जाता है अज्ञात दिशा को! हटो विहंगम, उड़ जाओगे!तुम तूफान समझ पाओगे?

Harivansh Rai Bachchan Poems | रात आधी खींच कर मेरी हथेली

 रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों मेंऔर चारों ओर दुनिया सो रही थी,तारिकाएँ ही गगन की जानती हैंजो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,रात आधी खींच कर मेरी हथेलीरात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसूबह रहे थे इस नयन से उस नयन में,


मैं लगा दूँ आग इस संसार में हैप्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रनेके लिए था कर दिया तैयार तुमने!रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

प्रात ही की ओर को है रात चलतीऔ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,खूबियों के साथ परदे को उठाता,
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,और मैंने था उतारा एक चेहरा,वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने परग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।


और उतने फ़ासले पर आज तक सौयत्न करके भी न आये फिर कभी हम,फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौकाउस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं–बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जोरख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

साथी, साँझ लगी अब होने! / हरिवंशराय बच्चन

 फैलाया था जिन्हें गगन में,विस्तृत वसुधा के कण-कण में,उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने!साथी, साँझ लगी अब होने!
खेल रही थी धूलि कणों में,लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में,वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने!साथी, साँझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया,फूलों से था जिन्हें सजाया,खेल-घरौंदे छोड़ पथों पर चले गए हैं बच्चे सोने!साथी, साँझ लगी अब होने!

गीत मेरे

 गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन,गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ,और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,कह उठे संसार, आया ज्‍योति का क्षण,गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,फैल जाए विश्‍व में भी लालिमा तब,जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण,गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।जग विभामय न तो काली रात मेरी,मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,यह रहे विश्‍वास मेरा यह रहे प्रण,गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।

लहर सागर का श्रृंगार नहीं

 लहर सागर का नहीं श्रृंगार,उसकी विकलता है;अनिल अम्बर का नहीं खिलवारउसकी विकलता है;विविध रूपों में हुआ साकार,रंगो में सुरंजित,मृत्तिका का यह नहीं संसार,उसकी विकलता है।
गन्ध कलिका का नहीं उदगार,उसकी विकलता है;फूल मधुवन का नहीं गलहार,उसकी विकलता है;कोकिला का कौन सा व्यवहार,ऋतुपति को न भाया?कूक कोयल की नहीं मनुहार,उसकी विकलता है।
गान गायक का नहीं व्यापार,उसकी विकलता है;राग वीणा की नहीं झंकार,उसकी विकलता है;भावनाओं का मधुर आधारसांसो से विनिर्मित,गीत कवि-उर का नहीं उपहार,उसकी विकलता है।

Harivansh Rai Bachchan Poems | चिडिया और चुरूंगुन

 छोड़ घोंसला बाहर आया,देखी डालें, देखे पात,और सुनी जो पत्‍ते हिलमिल,करते हैं आपस में बात;-माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?’नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
डाली से डाली पर पहुँचा,देखी कलियाँ, देखे फूल,ऊपर उठकर फुनगी जानी,नीचे झूककर जाना मूल;-माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?’नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
कच्‍चे-पक्‍के फल पहचाने,खए और गिराए काट,खने-गाने के सब साथी,देख रहे हैं मेरी बाट;-माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?’नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
उस तरू से इस तरू पर आता,जाता हूँ धरती की ओर,दाना कोई कहीं पड़ा होचुन लाता हूँ ठोक-ठठोर;माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?’नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
मैं नीले अज्ञात गगन कीसुनता हूँ अनिवार पुकारकोइ अंदर से कहता हैउड़ जा, उड़ता जा पर मार;-माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?
‘आज सुफल हैं तेरे डैने,आज सुफल है तेरी काया’

क्यों पैदा किया था?

 ज़िन्दगी और ज़माने कीकशमकश से घबराकरमेरे बेटे मुझसे पूछते हैं किहमें पैदा क्यों किया था?और मेरे पास इसके सिवायकोई जवाब नहीं है किमेरे बाप ने मुझसे बिना पूछेमुझे क्यों पैदा किया था?
और मेरे बाप को उनकेबाप ने बिना पूछे उन्हें औरउनके बाबा को बिना पूछे उनकेबाप ने उन्हें क्यों पैदा किया था?
ज़िन्दगी और ज़माने कीकशमकश पहले भी थी,आज भी है शायद ज्यादा…कल भी होगी, शायद और ज्यादा…
तुम ही नई लीक रखना,अपने बेटों से पूछकरउन्हें पैदा करना।

क्यों जीता हूँ / हरिवंशराय बच्चन 

 आधे से ज़्यादा जीवनजी चुकने पर मैं सोच रहा हूँ-क्यों जीता हूँ?लेकिन एक सवाल अहमइससे भी ज़्यादा,क्यों मैं ऎसा सोच रहा हूँ?
संभवत: इसलिएकि जीवन कर्म नहीं है अबचिंतन है,काव्य नहीं है अबदर्शन है।
जबकि परीक्षाएँ देनी थींविजय प्राप्त करनी थीअजया के तन मन पर,सुन्दरता की ओर ललकना और ढलकनास्वाभाविक था।जबकि शत्रु की चुनौतियाँ बढ कर लेनी थी।जग के संघर्षों में अपनापित्ता पानी दिखलाना था,जबकि हृदय के बाढ़ बवंड़रऔ’ दिमाग के बड़वानल को शब्द बद्ध करना था,छंदो में गाना था,तब तो मैंने कभी न सोचाक्यों जीता हूँ?क्यों पागल साजीवन का कटु मधु पीता हूँ?
आज दब गया है बड़वानल,और बवंडर शांत हो गया,बाढ हट गई,उम्र कट गई,सपने-सा लगता बीता है,आज बड़ा रीता रीता हैकल शायद इससे ज्यादा होअब तकिये के तलेउमर ख़ैय्याम नहीं है,जन गीता है।

दो पीढियाँ / हरिवंशराय बच्चन

 मुंशी जी तन्नाएपर जब उनसे कहा गया,ऎसा जुल्म और भी सह चुके हैंतो चले गए दुम दबाए।
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मुंशी जी के लड़के तन्नाए,पर जब उनसे कहा गया,ऎसा ज़ुल्म औरों पर भी हुआ हैतो वे और भी तन्नाए।

एक नया अनुभव / हरिवंशराय बच्चन 

 मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक कविता लिखना चाहता हूँ।चिड़िया नें मुझ से पूछा, ‘तुम्हारे शब्दों मेंमेरे परों की रंगीनी है?’मैंने कहा, ‘नहीं’।’तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?”नहीं।”तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?”नहीं।”जान है?”नहीं।”तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?’मैनें कहा, ‘पर तुमसे मुझे प्यार है’चिड़िया बोली, ‘प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?’एक अनुभव हुआ नया।मैं मौन हो गया!

Harivansh Rai Bachchan Poem madhushala ( मधुशाला )